Related Articles

3 Comments

  1. देवेन्द्र

    पहले तो जाति भेद, फिर जातिगत वर्गभेद, फिर सामाजिक उन्नति के आधार पर इन भेदों का सिमटते जाना, किस बात का द्योतक है?
    शिक्षा का प्रसार, आर्थिक सुदृढ़ीकरण, वैश्विकीकरण। क्या हम भविष्य में एक जातिविहीन, धर्म विहीन, रंग विहीन समाज की कल्पना कर सकते हैं?

  2. Ravi Kant

    जातिगत भेदभाव ने ही गढ़वाल का छतियानाश कर के रखा है।जो हथियार , औजार और हल का निर्माण करते हैं, जो आपके घरों का निर्माण करते हैं , जो आप लोगों के शादी-ब्याह में गीत संगीत कार्यक्रम करते हैं उन्हें तथाकथित उच्च जाती का समझने वाले मुगल आंकरताओं और अंग्रेज़ों के साथ कोई भेदभाव नहीं। कई तथाकथित उच्च जातीय वर्गो की संतान उन निर्दोष जन जिनको आपने समाज के सबसे निचले पायदान पर रखा का श्राप कई सदियो तक झेलना पड़ सकता है।आज पूरे उत्तराखंड मे जो मस्जिदों का अंबार लग गया है इसके लिए कौन दोषी है केवल और केवल उच्च जातिगत भेदभाव जिन्होंने अपने हिंदु भाइयों को हमेशा नीच रखा। आपकी पत्रकारिता एक वामपंथी सोच रखती है ।

  3. Manish

    मात्र ऊपरी बातें है ये कुमाऊँ में ब्राह्मणों की ऐसी कोई जातीय श्रेणी नहीं है, ये सब बकवास बातें लिखी हैं, आपके लेख अनुसार तो ऐसा प्रतीत होता है कि कुमाऊँ में ब्राह्मणों की 3 जातियां हैं जिनकी आपस मे ही नहीं बनती। पहाड़ों में ये प्लेन्स वाला नीयम नहीं चलता उदाहरण के लिए हलबानी बामन आपके अनुसार निम्न माने जाते हैं और गरीब होते हैं पर सच्चाई तो यह है कि ब्राह्मणों को कभी भी अमीर गरीब के पैमाने से नहीं ज्ञान के पैमाने से देखा जाता है, उसके बाद कर्म द्वारा। पश्चिमी तकनीक द्वारा ज्ञान किया गया लगता है आपका, ज्ञानार्जन करना चाहिए पर एक समय और स्थान के अनुकूल ही, हर जगह एक ही माप दण्ड नहीं लगते। हलबानी ब्राह्मण बाकि ब्राह्मणों की तरह कर्मकांड नहीं करते बल्कि एकांत वास ज्यादा करते हैं आरण्यकों की तरह, क्योंकि वे नागर ब्राह्मणों की तरह समाज मे कोई भूमिका नहीं निभाते इसलिए उन्हें समाज के लिए कमतर समझा जाता है, इसका भेद भाव से कुछ लेना नहीं है। यहॉं यह भी नहीं भूलना चाहिए कि कुमाऊँ का समाज भी पूर्व में खस समाज ही था जहाँ सब एक ही जैसा कार्य करते थे अर्थात पशुपालन और कृषि, इसलिए वहाँ भेदभाव जैसा कुछ नहीं था। बाद में जब प्लेन्स से जो क्षत्रिय समाज आया वही अपने साथ कितनी ही नई रीतियां लेकर आया जिसमे ये जातिवाद भी था। आज भी उत्तराखण्ड में (खासकर खस लोगों में) जातिवाद उतना प्रचलन में नहीं है जितना प्लेन्स में है। कुमाऊँ में ग्रामीण ब्राह्मण समाज मे जो ऊपरी बटवारा दिख रहा है वह कर्म के आधार पर है न कि अमीर गरीबी के आधार पर है, पर वह इतना भी भयानक नहीं है जीतना इस लेख में दर्शाया जा रहा है, रोटी-बेटी का रिश्ता नहीं है यह कहकर इस लेखक ने तो यहाँ की भोली जनता को ही बदनाम कर दिया, आज भी यहाँ जाती से ज्यादा व्यक्तित्व का सम्मान होता है। पहले बाहर के लोग यहाँ आकर अपनी प्रथाएँ जोड़ते हैं फिर जबतक हम उनको अपनाते तब तक प्लेन्स में उस प्रथा को कुरीति करार दे दिया गया, तो इसमें गलती किसकी है ?

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

2024©Kafal Tree. All rights reserved.
Developed by Kafal Tree Foundation