सुंदर वादियाँ, कभी हरे तो कभी बर्फ की चादर से ढंके सफेद पहाड़. चहचहाती चिड़ियाँ. रसीले फलों से लदे पेड़. दूर कहीं बादलों के बीच से झाँकता हिमालय. आँखों पर पड़ती उगते सूरज की सुकूनदेह किरण. कुछ यही छाप है मन में पहाड़ों की, उत्तराखंड की. प्रकृति का ये स्वरूप जो नन्हे बच्चे की दंतुरित मुस्कान सा है. छल-कपट से ज़मीन आसमां सा दूर है. कुछ हिस्सा आज भी मानव हस्तक्षेप से दूर है. (Yakulaans Kriti Atwal)
घर हैं पर लोग नहीं. फल हैं पर खाने वाले नहीं. बच्चे हैं पर आंगन में किलकारी नहीं. खेत हैं पर खेती करने वाले नहीं. बुजुर्ग हैं पर उनसे कोई बोलने वाला नहीं. कभी गाँव थे यह पर अब ‘भूतिया गांव’ हैं. उत्तराखंड के हर पहाड़ की कहानी है यह. कई भाषाओं, परंपराओं, संस्कृतियों और उनसे जुड़ी कई कहानियों का दिल चीरने सा है ये.
पांडवास द्वारा निर्मित और कुनाल डोबाल द्वारा निर्देशित “यकुलांस” पहाड़ों के इन्हीं पहलुओं को दर्शाती एक फिल्म है. 28 मिनट की यह फिल्म आँखों में ही कट जाती है.
यह पहाड़ में रहने वाले एक आम पहाड़ी पिता की कहानी है. एक बुजुर्ग की आँखें हमारी भी आँखें नम कर देती हैं. यह एहसास भी करा देती है कि कितनी जल्दी हम अनुमानों की बौछार शुरू कर देते हैं.
शुरुआत में लगने लगा कि कैमरा सही जगह नहीं है. आधी फिल्म यूँ ही निकल गई तो लगा शायद निर्देशक किरदार को पर्दे पर लाना ही नहीं चाहते. फिर जब कुछ आगे बढ़ी तो लगा कि यह तो मेरी ही आँखें हैं. इससे बेहतर कैमरा एंगल भला और क्या हो सकता है.
उस बुजुर्ग की आँखों से देखो तो लगता है इस भाग दौड़ भरी दुनिया का अर्थ ही क्या— जब कोई कुशलक्षेम पूछने वाला तक नहीं है. फल से लदे पेड़ हैं मगर कोई देखने वाला ही नहीं है. एक पल के लिए लगा कि इन्हें भी यहाँ से चल देना चाहिए. फिर एहसास हुआ इस भाग-दौड़ भरी पाखंडी दुनिया से तो यह गाँव ही सुखी हैं. पर फिर भी वीरान क्यों हैं? फिर जवाब मिला आखिर इतने सुंदर, इतने शांतिप्रद होने के बावजूद सुविधाओं के पैमाने पर तो ये गांव कहीं टिकते ही नहीं.
एक समाजशास्त्र की शिक्षार्थी होने के नाते यूँ इस तरह वीरान होते गांव का एक कारण मुझे समाज में रुतबा हासिल करने की चाह भी लगी. यह ‘हाई-फाई’ कहलाने वाला समाज तो पहाड़ियों का प्रेरणा समाज सा है और उस समाज का हिस्सा बनना उनकी आकांक्षा. इस तरह समाज के बने बनाये ढांचे में फिट बैठना समाज में उठने-बैठने के लिए एक मापदंड सा बन जाता है. अक्सर ज्यादा जद्दोजहद करने की बजाय हवा के रुख के साथ बहना आसान भी होता है. इसलिए भी पहाड़ों से लोग तराई की ओर आकर्षित हो रहे हैं. यहाँ की धक्का-मुक्की भी उन्हें आरामदायक महसूस हो रही है. मन में चाहे पहाडों का अपना घर ही बसा हो पर सुविधाओं का यह जाल कोसों दूर तक अपना चुम्बकीय क्षेत्र बनाये है.
सीधा और साधारण व्यक्ति तो पहले से ही शोषण का शिकार होता आया है. इस फिल्म में भी यह देखने मिला. निसंदेह जानवरों की मासूमियत के सामने इंसानी मुखौटा कुछ भी नहीं है. जानवरों की आत्मीयता तो एक मौन एहसास है. पहाड़ों में तो अब यही जानवर डूबते का तिनका भी हैं.
स्क्रीन पर तेजी से चल रहे सभी दृश्य और यकुलांस से उत्पन्न आवाजें मन को चीर रही थीं. पलक झपके बिना ही हर दृश्य को अंदर समा लेना चाहती. एक अच्छी फिल्म शायद ऐसी ही होती है. जिसकी अपनी एक अलग भाषा होती है. जो अगर बिना आवाज भी देखी जाए तो समझना मुश्किल नहीं. “यकुलांस” भी कुछ ऐसी ही है. जो सिर्फ आपसे पहाड़ों और पहाड़ी जीवन की मूल समझ मांगती है बस.
इस फिल्म में संगीत की भूमिका भी अहम है. शुरू से समापन तक दृश्यों और भावनाओं का संगीत के साथ बढ़िया मेल बैठाया गया है. पूरी फिल्म नदी के समान बहती है और अपनी राह बनाती है. हर एक शॉट एक निशानी छोड़ता है. स्वेटर खोलने के वक़्त साँसों का संगीत हो या लकड़ी पर चोट मारती कुल्हाड़ी पहाड़ों के दैनिक जीवन के स्पर्श की थपकियाँ मन में कहीं समा जा रही हैं. ढोल से लेकर फलों से लदे पेड़, फोन न मिलने से लेकर फैले दाल के दाने अपने आप में पूरी कहानी बयां करते हैं .
फ़िल्म की कला को समझने के लिहाज से और पहाड़ों की सुंदरता के पीछे समाए दर्द को समझने के लिए भी यह फिल्म देखी जानी चाहिए.
आखिर उत्तराखंड बनने के केवल दो दशकों में ही हम उस आंदोलन की जड़ों से दूर हो चुके हैं. हम उत्तराखंड आंदोलन की विरासत को भूल ही गए हैं. क्या उत्तराखंड के एक अलग राज्य बन जाने से सारी समस्याएं समाप्त हो गई? क्या “मी उत्तराखंडी छु” कह देने से और अपनी टी-शर्ट पर ‘पहाड़ी डुड’ लिखवाना ही हमारी ज़िम्मेदरियाँ हैं? (Yakulaans Kriti Atwal)
लेखिका कृति अटवाल नानकमत्ता पब्लिक स्कूल में कक्षा : 11 की छात्रा हैं.
पाण्डवाज़ की फिल्म ‘यकुलाँस’ भारतीय सिनेमा के लिये एक सम्मान है
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