1949-50 से पहले हल्द्वानी में सार्वजनिक प्रकाश व्यवस्था के लिये अधिकतर जगहों पर कैरोसिन तेल के लैम्प जलाये जाते थे. 1929-30 में हल्द्वानी शहर में प्रकाश की व्यवस्था ठेके पर चल रही थी.
1940-41 में हल्द्वानी में बिजली लाने के लिये उस समय के अध्यक्ष चौधरी श्यामसिंह ने अनेक फर्मों से संपर्क किया. 1947-48 में जब हल्द्वानी में पानी की समस्या को दूर करने की बात शुरु हुई उसी के साथ यहाँ विद्युतीकरण भी शुरु हुआ.
1947-48 में सार्वजनिक अभियंत्रण विभाग ने गौला से पानी खींचने के लिये नगरपालिका से एक शक्तिशाली पम्प की मांग की थी. उस समय के अध्यक्ष डी.के. पांडे ने राज्य सरकार को लिखा डीजल पंप की आवश्यकता के लिये लिखा लेकिन सरकार ने उन्हें यह कहकर मना कर दिया कि चूँकि शारदा विद्युत परियोजना जल्द ही पूरी होने वाली है इसलिये इस समय लाइसेंस दिया जाना तर्क संगत नहीं है.
डी. के. पांडे ने राज्य सरकार से दुबारा मांग की और लिखा
जिस गति से शारदा परियोजना का काम चल रहा है उसे पूरा होने में करीब दस बरस लगेंगे तब तक ऐसे नगर को जहां लकड़ी के उपरकरण, खेल के सामान, फल-संरक्षण, दाल, गेहूं और चावल की मिलों की बहुत बड़ी संभावना है, उसे बहुत दिनों तक बिजली से रहित रखना उसके विकास के लिए बाधक होगा.
इतने प्रयासों के बाद भी 1948-49 में हल्द्वानी में गलियों में प्रकाश व्यवस्था नगरपालिका के कर्मचारियों के द्वारा ही की जा रही थी.
डी. के. पांडे के प्रयासों से ही राज्य सरकार ने 1947-48 में हल्द्वानी के विद्युतीकरण के लिए ग्यारह लाख नौ हजार रूपये का ऋण दिया.
इसके बाद नगरपालिका को विद्युत वितरण के लिये साल के 350 खंभों की जरूरत थी. पालिकाध्यक्ष ने इस संबंध में वन विभाग को लिखा लेकिन वन बी=विभाग ने इसकी अनुमति नहीं दी. बाद में थोड़े संघर्ष के बाद नगरपालिका को लकड़ियां मिल गयी.
31 मार्च 1951 तक नगर की सड़कों पर दौ सौ जगहों पर बिजली के बल्ब लग चुके थे. 150 लोगों ने घरों में बिजली के कनेक्शन के लिये आवेदन किया था.
(डॉ. किरन त्रिपाठी की पुस्तक ‘हल्द्वानी: मंडी से महानगर की ओर’ के आधार पर)
1850 तक एक भी पक्का मकान नहीं था हल्द्वानी में
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