ककड़ी खाने का असल तरीका पहाड़ियों के पास ही हुआ
अब बड़ी ककड़ी के रायते के तो कहने ही क्या. हरी ककड़ी की चोरी भी माफ़ ठेरी. पर तभी तलक जब तक बुड बाड़ों की नज़र चूकी रहे. नन्तर ककड़ी तो गई सो गई ऐसी ऐसी गालियां खाने को मिलें कि पुस्त दर पुस... Read more
दाल-भात-साग रोज ही खाये गए. पर किसके साथ क्या मेल बने इसके बहुत सारे संयोग बने. खास बात ये कि, घी तेल मसाले, बड़े नपे-तुले माप में बिना ढोल-फोक किये डाले जाते. लकड़ी की आंच भी नियंत्रित. जब... Read more
काले कौआ : ले कौवा पुलेणी, मी कें दे भल-भल धुलेणी
पूस की कुड़कुड़ा देने वाली ठंड, कितना ही ओढ़ बिछा लो, पंखी, लोई लिपटा लो कुड़कुड़ाट बनी रहती. नाक से भी पानी चूता रहता. नानतिनों की क्या कहें, ठुले जवान बुड़-बाड़ि स्वीटर, फ... Read more
दारमा घाटी के परम्परागत घर और बर्तन
दारमा इलाके में फाफ़र और उगल को भकार के साथ कुंग में भी जमा किया जाता. दारमा के दुमंजिले मकानों में नीचे की मंजिल से दुमंजिले की ओर चढ़ने वाली आखिरी पत्थर की सीढ़ी से नीचे फर्श तक... Read more
पहाड़ी दाल और उसके दगड़िया
उत्तराखंड में होने वाली दालों में खरीफ में भट्ट, मास या उड़द, राजमा या फ्रासबीन,गहत, गरूँस, रेंस, मटर व बाकुला मुख्य हैं. इनमें बाकुले की सब्जी पेट के लिए अच्छी मानी जाती, इसके गूदे सुखा के... Read more
रोटी में पधान रहा गेहूं और मडुए को गरीब का पेट भर सकने की हैसियत मिली. रोज मड़ुआ खा बिछेंन हो गई तो बोल भी फूट पडे, ‘मड़ुआ रोट में नी खानी, ग्युंक पिसु ओल.’ इनके आपसी मेल से लेसु... Read more
गंगोलीहाट का लाल चमयाड़ हो या अल्मोड़े का थापचिनी खूब स्वाद होता है पहाड़ी चावल
पहाड़ में खरीफ की मुख्य फसल होती धान जो उपरांउ व तलाऊँ यानि सेरे में बोई जाती. खूब मेहनत मांगती. छोटे खेत मेंड़ में बंधते. पानी से लबालब. बल्या बेर यानि छांट-छांट कर सुखा कर रखे बीजों से पौं... Read more
उत्तराखंड में अनाज की माप के पारंपरिक बर्तन
ताँबे के बर्तन में रखा पानी शुद्धता और स्वाद के लिहाज से सबसे अच्छा माना जाता. वहीं लोहे की कढ़ाई साग पात, जौला, भटिया झोली बनाने में रोज ही काम में लायी जाती. बर्तन को पोछ कर खाने की होड़ भ... Read more
पहाड़ में पेड़-पौधों के रेशों से बनने वाले उत्पाद
पहाड़ में अनेक पेड़-पौंधों से रेशा निकला जाता जिनमें रामबांस, भाँग, बबिला, मालू, मूँज, मोथा, अल, उदाल, धान का पुवाल, गेहूं का नलौ, कुचिया बाजुर, यूका, थाकल मुख्य थे. भाँग के रेशों से खूब नरम... Read more
तिजोरी से कम राज नहीं हैं आमा के भकार में
पहाड़ों में ज्यादा मात्रा में अनाज को भकार में रखा जाता. तुन, चीड़ और देवदार के तख्तों या पटलों से भकार बनाये जाते. इसमें कई खाने बना दिये जाते और हर खाने में अनाज की अलग-अलग किस्म रख कर लकड... Read more
Popular Posts
- कहानी: सूरज के डूबने से पहले
- कहानी: माँ पेड़ से ज़्यादा मज़बूत होती है
- कहानी: कलकत्ते में एक रात
- “जलवायु संकट सांस्कृतिक संकट है” अमिताव घोष
- होली में पहाड़ी आमाओं का जोश देखने लायक होता है
- पहाड़ की होली और होल्यारों की रंग भरी यादें
- नैनीताल ने मुझे मेरी डायरी के सबसे यादगार किस्से दिए
- कहानी : साहब बहुत साहसी थे
- “चांचरी” की रचनाओं के साथ कहानीकार जीवन पंत
- आज फूलदेई है
- कहानी : मोक्ष
- वीमेन ऑफ़ मुनस्यारी : महिलाओं को समर्पित फ़िल्म
- मशकबीन: विदेशी मूल का नया लोकवाद्य
- एक थी सुरेखा
- पहाड़ी जगहों पर चाय नहीं पी या मैगी नहीं खाई तो
- भाबर नि जौंला: प्रवास-पलायन का प्रभावी प्रतिरोध
- बातें करके लोगों का दिल कैसे जीतें
- जंगल बचने की आस : सुप्रीम कोर्ट का अंतरिम आदेश
- सोशियल मीडिया में ट्रेंड हो रहा है #SaveJageshwar
- चाय की टपरी
- माँ जगदंबा सिद्ध पीठ डोलीडाना
- इस्मत चुग़ताई की कहानी : तो मर जाओ
- कहानी: रेल की रात
- भाबर नि जौंला…
- जनजाति विकास : मध्यवर्ती तकनीक, बेहतर भी कारगर भी