तब धारचूला हमारे उत्तराखण्ड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ का आख़िरी स्टेशन हुआ करता था. आज से तीस-चालीस साल पहले तक वहां पहुंच पाना भी आम लोगों के लिए बहुत परेशानी भरा होता था जब यातायात के संसाधन कम थे और सड़कें कच्ची. नेपाल-तिब्बत सीमा से नजदीकी के कारण 1990 के दशक के मध्य तक आपको धारचूला जाने के लिए जौलजीबी से बाकायदा इनर लाइन परमिट चाहिए होता था. Rungs of Dharchula Ashok Pande
धारचूला एक छोटा सा पहाड़ी कस्बा है और एक बेहद पुरानी, बेहद संपन्न सभ्यता का मुख्यद्वार भी. यहां से 18 किलोमीटर आगे तवाघाट नाम की जगह पर कालीगंगा और धौलीगंगा नदियों का संगम होता है. काली नदी के साथ-साथ चढ़ते जाएं तो व्यांस घाटी पड़ती है और धौली के साथ-साथ दारमा घाटी. इन दो के बीच एक तीसरी घाटी है जिसे चौंदास कहा जाता है. इन तीन घाटियों में रहने वाले लोग अपने आप को रं कहते हैं. यह अलग बात है कि उनके तिब्बती नाक-नक्श देख कर डेढ़ सौ बरस पहले उस इलाके से गुजर रहे किसी अंग्रेज अफसर ने उन्हें अपने रेकॉर्ड्स में भोटिया के नाम से दर्ज कर दिया. तब से यही गलत नाम चल निकला. लेकिन ये लोग रं हैं जो अपने श्रम, बुद्धिमत्ता और साहस के बल पर अकल्पनीय विपरीत प्राकृतिक परिस्थितियों में सदियों से बसर करते आए हैं. उनकी बोली में रं शब्द का अर्थ होता है बांह यानी बल. Rungs of Dharchula Ashok Pande
1950 के दशक में तिब्बत पर चीन के कब्जे से पहले ये लोग व्यापार करने हर साल वहां जाया करते थे. यह सैकड़ों साल पुरानी परंपरा थी जिसने उन्हें आर्थिक रूप से बहुत संपन्न बनाया. भारत से चीनी, कपड़ा, मसाले वगैरह ले जाया जाता और वहां से सुहागा, जड़ी-बूटियाँ, ऊन और नमक जैसी चीजें लाई जातीं. गर्मियों का समय ही व्यापार के लिए मुफीद होता था क्योंकि हिमालय की विकट और दुर्गम ऊंचाइयों वाले उनके गाँवों में बर्फीले नवम्बर के बाद रह सकना असंभव हो जाता. इस उद्देश्य से हर रं गांव ने धारचूला और उसके आसपास की बसासतों में अपने शीतकालीन खेड़े बना रखे थे. गर्मियों भर पुरुष तिब्बत की तकलाकोट मंडी में व्यापार किया रहते जबकि महिलाएं घरों में रहती, खेती करतीं, गलीचे बुनतीं और गीतों- कहानियों का निर्माण करतीं.
तिब्बत से लौटने के बाद वहां से लाई चीज़ों के वितरण की जिम्मेदारी भी इन्हीं व्यापारियों की होती थी. सबसे पहले वे अपनी लाई चीजों को जौलजीबी और बागेश्वर जैसी जगहों पर लगने वाले बड़े व्यापारिक मेलों में बिक्री के लिए प्रस्तुत करते थे. इसके बाद चलता था गांव-गांव, नगर-नगर पैदल घूमने का सिलसिला. कभी-कभार ये यात्राएं राज्यों और देशों की सीमाओं के पार तक होती थीं. इन व्यापारियों के सुदूर कालिम्पोंग-कलकत्ता से लेकर कर्नाटक-तमिलनाडु तक पहुँचने के अभिलेख मिलते हैं. Rungs of Dharchula Ashok Pande
कुमाऊं का शायद ही कोई ऐसा घर होगा जिसके बड़े-बूढ़ों के पास ऐसे किसी भोटिया व्यापारी के हर साल अपने घोड़ों-बकरियों के साथ आने के स्मृति न हो. उनके रेवड़ की घंटियों की टनटनाहट को मीलों दूर से सुन लिया जाता था और लोग उत्सुकता से उनके आगमन की प्रतीक्षा किया करते थे कि देखें इस साल क्या नयी चीज देखने को मिलने वाली है.
एक सभ्यता के रूप में रं समुदाय बाकी संसार से मीलों आगे रहा है. महिलाओं और विपन्न लोगों के प्रति सामाजिक दायित्व के जिन स्तरों को रं समाज सैकड़ों बरस पहले छू चुका था उन तक पहुँचने के लिए दुनिया भर की सरकारें और एनजीओ फकत योजनाएं बनाया करते हैं. वहां ग्रामीण बैंकिंग की सदियों पुरानी अनूठी परंपरा है जिसके बारे में फिर कभी बताऊंगा. इसके अलावा इस सभ्यता के पास भरपूर सांस्कृतिक सम्पन्नता की एक धरोहर है जिसकी रक्षा स्वयं हिमालय ने की है.
जीवन और परिस्थितियों ने बदलना ही था. वही उनका धर्म है. तिब्बत का व्यापार समाप्त हो जाने के दस-बारह साल इन लोगों ने इस उम्मीद पर काटे कि देरसबेर वह फिर से चालू हो जाएगा. उम्मीद ख़त्म हो रही थी. हौसला भी. फिर यूं हुआ कि उन्हीं के समाज के कुछ सचेत लोगों के प्रयास से उन्हें सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिए जाने के लिए चुन लिया गया. एक तत्पर और साहसी कौम ऐसे में जो करती है, उसने वही किया. पढ़ाई के महत्त्व को समझा और आज देश के कोने-कोने में तमाम बड़े सरकारी ओहदों तक इस घाटियों के जन पहुँच चुके हैं.
यह सब लिख सकता हूँ क्योंकि मैंने खुद अपनी जवानी के सबसे मूल्यवान नौ-दस वर्षों का बहुत बड़ा हिस्सा रं गांवों में बिताया है. चार-चार पांच-पांच महीनों तक हम बगैर बिजली के अजाने कमरों के कोनों में अपनी रातें बिताते थे. इस पूरी अवधि में हम सैकड़ों किलोमीटर अपने पैरों तले नापते थे और इतने कम लोगों से मिल पाते थे कि हर चेहरा, हर नाम याद रह जाया करता. ऐसी हर यात्रा के समाप्त होने पर अमूमन तवाघाट में दिखने वाली पहली मोटरगाड़ी को देखकर विस्मय भी होता था. कई बार तो ऐसा भी हुआ कि दस हजार फीट की ऊंचाई वाले किसी गाँव में सिर्फ एक बाशिंदा होता था जो बिना किसी ड्रामे के दो-तीन सप्ताह तक हमारे भोजन-रहने का प्रबंध कर देता था. जीवन की और प्रकृति की सबसे यादगार कहानियाँ मैंने वहीं सुनीं. अपनी चुनिन्दा सबसे पक्की दोस्तियों की नींव भी वहीं पड़ी. Rungs of Dharchula Ashok Pande
कुमाऊं में रहने वाले मेरे पुरखों की न जाने कितनी पीढ़ियों के भोजन को रं व्यापारियों द्वारा तिब्बत से लाये गए नमक ने स्वाद बख्शा होगा. बीहड़-अकेले रास्ते पर चलते चले जाने की धुन मुझ तक उन्हीं के गाँवों में लम्बे समय तक रहने से पहुँची होगी. मैंने कुछ दिन पहले कहा था कि मैं कभी बोर नहीं होता.
छोटी आँखों वाले इन फ़राखदिल फरिश्तों को एक बड़ा सा सलाम तो बनता है.
-अशोक पाण्डे
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One Comment
इंजीनियर कैलाश चंद्र जैन
पता नहीं मुझे ये लगता है कि रं सभ्यता का संबंध सिंंधु-सभ्यता से रहा है.मगर अभी इससे जुड़ाव का कोई सूत्र नहीं नहीं मिल पाया है.क्या कोई पाठक इसमें मददगार हो
सकता है ?