पिछली पोस्ट में मैंने भारत के कालजयी लेखक प्रेमचंद के परिवार के साथ रहने के कारण खुद को सौभाग्यशाली व्यक्तियों में माना था. शायद यह मेरा सौभाग्य ही रहा होगा, हालाँकि मुझे नहीं मालूम कि सौभाग्य क्या होता है? ज्ञानी लोग कहते हैं कि जीवन के अगले क्षणों... Read more
उत्तराखंड़ के गांवों की एकता, प्रेमचंद के उपन्यासों मे वर्णित भाइचारे की सच्ची झलक दिखलाती है. सांझा चूल्हा हो या शादी बारात, किसी के घर मे कोई पैदा हो या मरे गांव के सारे लोग साथ खड़े मिलते है. ऐसे कठिन हालात मे भी किसी चीज का अभाव कभी नह... Read more
पहाड़ और मेरा जीवन – 42 पिछली कड़ी: एक कमरा, दो भाई और उनके बीच कभी-कभार होती हाथापाई हम सबकी जड़ें गांवों में हैं, लेकिन सबने वहां का जीवन नहीं देखा. मैं अपने गांव के बहुत करीब रहा, लेकिन गांव के जीवन को उस तरह नहीं जान पाया जैसा कि गांव में र... Read more
थोथा देई उड़ाय-1 कल एक मित्र ने मुझे अमित्र कर दिया. ये कुट्टी हो जाने का बालिग संस्करण है. (Facebook Dramas and Anti Dramas) सोशल मीडिया ने, मीडिया का तो जो किया हो, समाज का बड़ा उपकार किया है. अब मेल जोल, जान पहचान का वितान बढ़ गया है. पहले क्या था... Read more
मुंशी प्रेमचंद की क्लासिक कहानी ‘ईदगाह’ की शुरुआत, अगर मुझे ठीक से याद है, तो कुछ इस तरह से है- “रमज़ान के पूरे तीस रोज़ बाद ईद आयी…”. क़िस्सागोई वाले सीधे सपाट अंदाज़ में बयाँ इस कहानी का कथ्य आगे बताता है कि किस तरह ईद... Read more
पहाड़ और मेरा जीवन – 38 (पिछली कड़ी: एक शराबी की लाश पर महिलाओं के विलाप ने लिखवाई मुझसे पहली कविता ) आठवीं से नवीं में आने के सफर के दौरान मुझे खुद में दो बदलाव साफ दिखाई दिए- पहला तो मैं छोटे कद और गबरू लुक से बाहर निकलकर थोड़ा लंबा और छरहरा हो [... Read more
मेरे पास अनेक संदेश आ रहे हैं कि क्या महादेवी वर्मा सृजन पीठ बंद हो गयी है? उसे किसने बंद किया और क्यों किया? क्या यह एक सरकारी संस्था थी? क्या इसका कोई स्वायत्त ढांचा था? मेरा इस संस्था के साथ क्या संबंध है? अधिकांश लोग इसे मेरी संस्था के रूप में जा... Read more
‘हमारा जैसा बोलेंगा तो हिंदी कैसे बनेगा राष्ट्रभाषा, बोलो?’ ठीक तारीख याद नहीं है, 1978-79 के किसी महीने में एक दिन सुना कि मिसेज रेनू बनर्जी की लगभग छिहत्तर साल की उम्र में मृत्यु हो गई है. उन दिनों मैं नैनीताल से बदली होकर मिर्जापुर के आदिवासी इलाक... Read more
उस कक्ष में पांच कर्मचारी उपस्थित थे- तीन पुरुष और दो महिलायें. सभी कुछ देर पहले ही अपने-अपने स्थानों पर आकर बैठे थे. शासकीय भाषा में कहें तो मध्याह्न पूर्व का समय था. कक्ष में -ज़मीन पर, टेबलों पर, अलमारियों के भीतर, अलमारियों के ऊपर- फ़ाइलें ही फ़ाइले... Read more
ललछोंह लकड़ी की इस टीवी ट्रॉली और किताबों की इन दो छुटकी रैकों को जब भी देखता हूं तो राजपुरा, हल्द्वानी में बयालीस वर्ष पहले ठेकेदार राम सिंह मेवाड़ी जी से खरीदा वह पहाड़ी तुन का मोटा, सूखा तना याद आ जाता है जिसे आरा मशीन पर चिरवा कर मैं उसके तख्ते पंतन... Read more