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2 Comments

  1. Anonymous

    कू ब कू फैल गई बात शनासाई की-में जाने क्या था जिसकी वजह से मैंने लगातार इसे सुना–दिनरात,सोते-जागते, यहाँ तक कि पढ़ते हुए भी… कितनी बार–याद नहीं! इसका जिक्र इस मजमून में पढ़ते ही समूची ग़ज़ल एक तस्वीर की तरह सामने खिंच आयी है और इसे एकबार फिरसे सुनना शुरू कर चुका हूँ….. बात तो सच है मगर…!

    शुक्रिया अशोक दा!

  2. Anonymous

    अहा!!

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