दारमा घाटी के भीतर: बौन गाँव स्वतंत्रता दिवस का उत्सव और उन्नीसवीं शताब्दी का गिरजाघर
-अशोक पाण्डे
(पिछली कड़ी से आगे. पिछली कड़ी का लिंक – दारमा से व्यांस घाटी की एक बीहड़ हिमालयी यात्रा – 6)
गाँव के बिलकुल शुरू में सुन्दर और छोटा लेकिन महत्वपूर्ण दिखाई दे रहा एक शिव मंदिर है. गाँव के भीतर कोई भी नज़र नहीं आता. अचानक दो स्कूली लड़कियां दिखाई देती हैं जो मेरे उनसे स्कूल का पता पूछते ही शर्मा कर भाग जाती हैं. एक दूसरे से सटे घरों की पंक्तियों के बीच की संकरी गलियाँ गोबर और कीचड़ से भरी हुई हैं. मुझे याद नहीं पड़ता मैंने इतना गंदा और संकरा कोई भी दूसरा शौका गाँव देखा है.
थोड़ा आगे चलने पर हम स्कूल पहुँच जाते हैं. वहां का माहौल घटनापूर्ण है. खूब सारे लोग बच्चों का कार्यक्रम देखने पहुंचे हुए हैं. फिलहाल वार्षिक एथलेटिक मीट चल रही है.
अध्यापकगण गैरदिलचस्पी के साथ औपचारिकताएं निबटा रहे हैं. हाफ पैंट से लेकर फ्रॉक और पजामे से लेकर सलवार कमीज़ पहने तमाम तरह की उम्र और आकृतियों वाले लड़के-लड़कियां उत्साह के साथ ट्रिपल जम्प, लॉन्ग जम्प, हाई जम्प, दौड़, रोना, झगड़ना और शोर मचाने की गतिविधियों में लिप्त हैं जबकि दर्शकगण बातें करने, बीड़ी पीने, ऊन कातने और कुछ दिलचस्प घटने की प्रतीक्षा जैसे काम कर रहे हैं. उनमें से कुछ इस बेखयाली से ऊन कातने में लगे हैं कि उनकी बला से कुछ हो या न हो; उनके लिए आज का दिन एक दुर्लभ, आलसी और चमकीला दिन भर है. दूर एक अलग थलग कोने में औरतें बैठी हुई हैं. स्कूल परिसर में चारों तरफ भयानक अस्तव्यस्तता है, जो हमारे वहां प्रवेश करने के साथ और बढ़ जाती है क्योंकि वहां मौजूद हर किसी का ध्यान हमारी तरफ लग जाता है.
मैं किसी आदमी से पूछता हूँ कि ग्राम प्रधान कहाँ मिलेंगे. खादी के कपड़े पहने एक सज्जन हमारे पास आकर हमारा अभिवादन करते हैं. वही प्रधान जी हैं. मैं खुद का परिचय देने की रूटीन औपचारिकता शुरू करता हूँ और गंभीर चेहरे बनाए अनेक लोग धीरे-धीरे हमारे चारों तरफ इकठ्ठा होना शुरू कर देते हैं.
प्रधान जी खुशी खुशी हमारा परिचय वहां उपस्थित हर एक व्यक्ति से कराते हैं और हमें वहीं बैठकर एथलेटिक्स प्रतियोगिता देखने का न्यौता मिलता है. हम वहां की हाबड़ताबड़ को कुछ देर देखने का नाटक करने लगते हैं जब एक लड़का हमारे पास आकर हेलो कहता है. मुझे याद आ जाता है यह लड़का उन्हीं तीन में से एक है जो तवाघाट से सोबला तक हमारे आगे-पीछे चलते रहे थे. वह अपने बारे में बताता है. वह दिल्ली में रहकर इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा है. वह अगले गाँव फिलम का रहने वाला है और मानसून की छुट्टियों में अपने माँ-बाप से मिलने आया है. अलबत्ता अध्यापकों के चेहरों की भावहीनता झुंझलाने वाली है लेकिन खेलकूद में पूरी ईमानदारी से शिरकत कर रहे बच्चों को देखते हुए अब मेरी दिलचस्पी खुशी का रूप लेती जा रही है और आदतन नौस्टाल्जिया से भी भर रही है. इस दौरान इंजीनियरिंग का छात्र हमें लगातार इलाके के भूगोल और अन्य विषयों के बारे में उल्टी-सीधी डीटेल्स दिए चला जा रहा है उसके इर्द गिर्द खड़े उसके मित्र उसकी तरफ प्रशंसा भाव से देख रहे हैं कि वह एक अंग्रेज औरत के साथ धाराप्रवाह बातचीत कर सकता है. फिर अचानक कोई एक अधिक बुद्धिमान आदमी ईसाई मिशनरियों के बारे में बात करने लगता है जिन्होंने उन्नीसवीं शताब्दी में बौन गाँव आकर यहां बाकायदा एक चर्च का निर्माण करवाया था. यह बेहद दिलचस्प जानकारी है और मैं पूछता हूँ क्या हम वहां जा सकते हैं. चूंकि सांस्कृतिक कार्यक्रम के शुरू होने में कम से कम आधा घंटा और लगना है और वह जगह काफी नज़दीक है सो हमारी इस इच्छा को पूरा करने की तुरतफुरत व्यवस्था बनाई जाती है.
ईसाई मिशनरियों ने लम्बे समय तक शौकाओं को अपने प्रभाव में लाने के प्रयत्न किये थे. उन्होंने लगभग उसी काल में चौदांस घाटी के सिराखा गाँव में ऐसा ही एक चर्च बनाया था जहाँ उन्हें तकरीबन न के बराबर सफलता मिल सकी थी. चौदांस में कुल एक परिवार को धर्मांतरण करने के लिए मनाया जा सका था. लेकिन यहां बौन में उनकी कोशिशें पूरी तरह असफल रहीं. उनके बनाए गिरजाघर के खंडहर शौकाओं के अपनी परम्पराओं के प्रति सम्मान की कहानी कहते हैं और उनकी अपनी संस्कृति के प्रति निष्ठा को रेखांकित करते हैं.
सांस्कृतिक कार्यक्रम बहुत मनोरंजक साबित होता है. बच्चे पहले राष्ट्रगान गाते हैं फिर एक छोटी सी नृत्य-नाटिका प्रस्तुत करते हैं. अंत में बहुत सारे लोक नृत्य होते हैं. हर आयटम के बाद इंचार्ज टीचर जोर से कहता है – “स्काउट ताली बजा!” इस पर सारे बच्चे तीन बार रिहर्सल में साधे गए तरीके से ताली बजाते हैं.
दस साल का एक मुटल्ला सा लड़का है जिसका चेहरा बहुत ज़्यादा चौड़ा है. वह तकरीबन हर चीज़ में हिस्सा ले रहा है लेकिन वह जो कुछ करता है उसमें हर बार कुछ न कुछ ऊटपटांग और अजीब होता है – उसकी आवाज़ कभी भी कोरस के साथ मेल नहीं खाती न उसके कदम दूसरों की ताल से. इस पर हर कोई हंसता है. लेकिन उसे कोई फर्क नहीं पड़ता अलबत्ता एक नाच में उसकी पार्टनर बची शर्म के मारे लाल पड़ जाती है. एक बार बिचारा नीचे भी गिर पड़ता है. उसने एथलेटिक्स की भी हर स्पर्धा में बिना कोई इनाम जीते हिस्सा लिया था. इस सब के बावजूद उसका उल्लेखनीय उत्साह देखकर मुझे उससे मुहब्बत हो जाती है.
ग्राम प्रधान को दोबारा आने का आश्वासन देकर तीन बजे के आसपास हम बौन गाँव छोड़ते हैं. हमें आना ही होगा क्योंकि हम अपने अध्ययन के लिए कुछ भी जानकारी इकठ्ठा नहीं कर सके.
फिलम बौन से बमुश्किल एक किलोमीटर दूरी पर है. इंजीनियरिंग का छात्र हमारे साथ चलता है और हमें सीधा अपने घर ले जाता है. उसके माता-पिता बरामदे में मांस सुखाने में तल्लीन हैं. पिता तुरंत काम छोड़ देते हैं और हमारे साथ बैठ जाते हैं. मिनट भर के भीतर माता भी कम तज कर हमारे लिए चाय बनाने भीतर चली जाती हैं. एक वार्तालाप बंधना शुरू होता गई. लड़के के पिता सबीने से उसके परिवार और यूरोप के लोगों की भोजन-संबंधी आदतों के बारे में बहुत सारे सवालात करते हैं.
पता नहीं कैसे बातचीत का विषय पहाड़ों की और मुड़ जाता है. अभी तक लगभग खामोश बैठा लड़का सबीने से पूछता है –
“क्या आपके ऑस्ट्रेलिया में पहाड़ हैं”
“ऑस्ट्रेलिया नहीं ऑस्ट्रिया! ऑस्ट्रिया यूरोप में है …”
“हाँ, हाँ मुझे पता है!” इंजीनियर साहब अपने ज्ञान का प्रदर्शन करने पर आमादा हैं. “क्या आपको पता है दुनिया की सबसे ऊंची चोटी इण्डिया में है?”
“नहीं ऐसी बात तो नहीं है” सबीने उसे टोकती है, “सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट नेपाल में है.”
“हाँ हाँ लेकिन हम उसदे यहाँ इंडिया से देख सकते हैं … तो आपको पता है …” उसकी आवाज थोड़ा सा हकबका जाती है लेकिब वह अपनी बात को और समझाना चाहता है “आपको पता है एवरेस्ट दुनिया का सबसे ऊंचा पहाड़ है और इसे दोनों तरफ से देखा जा सकता है. इस साइड से आपको उसका एक हिस्सा दिखता है और लन्दन से दूसरा … और …”
किसी मूर्ख की तरह मैं इस ज्ञानवर्धक वार्तालाप को सुन रहा हूँ जब भाग्यवश उसकी माता चाय लेकर आ जाती है और हिमालय के भूगोल का अकल्पनीय रूपान्तरण होने से बचा लेती है.
“आपके ऑस्ट्रेलिया वाले चाय पीते हैं क्या?” वह फिर पूछता है.
अब तक किसी भी पढ़े-लिखे शौका के साथ हुआ यह हमारा सबसे अतार्किक और सदमे में डाल देने वाला वार्तालाप रहा है.
(जारी)
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