(पिछली कड़ी से आगे. पिछली कड़ी का लिंक – दारमा से व्यांस घाटी की एक बीहड़ हिमालयी यात्रा – 1)
दर गाँव से सोबला
-अशोक पाण्डे
आनसिंह दयियाल जी के अलावा हर कोई हम पर सवालों की झड़ी लगा देता है. अभी हमसे किसी ने भी भीतर आने को नहीं कहा है. हमें अच्छा लगता यदि हमें हाथ-मुंह धोने और थोड़ी देर लेटने की फुर्सत मिल सकती. मैं धैर्यपूर्वक सारे प्रशों के उत्तर देता हूँ. सबीने वियेना से आई हुए एक मानवशास्त्री है और मैं उसके साथ इंटरप्रेटर बन कर आया हूँ. मैं उन्हें अपने और व्यांस-चौदांस घाटियों की अपनी पिछली यात्राओं के बारे में बतलाता हूँ.
अचानक मितभाषी दरियाल साहब हस्तक्षेप करते हैं और फरमान सुनाते हैं की हम आज रात उनके घर रहेंगे. एक आदमी को तुरंत व्यवस्था बनाने के लिए घर रवाना कर दिया जाता है और हमारे लिए चाय आर्डर की जाती है. इस पूरे दरम्यान कन्धों पर बोझा लादे जयसिंह बेचैन बाहर खडा है. हमारी ही तरह इस घाटी में वह भी पहली ही बार सफ़र कर रहा है. अब जब सब कुछ तय हो चुका है वह सामान्य हो जाता है और अपनी पीठ खाली करता है. कुछ ही मिनटों में हर किसी का व्यवहार बेहद दोस्ताना हो गया है. लोग बहुत खुशमिजाज़ हैं और अपनी बोली ‘रं लो’ में हमारे बारे में बातचीत कर रहे हैं. उनके हावभाव से ज़ाहिर हो रहा है की वियेना से दर पहुँच गयी इस बहादुर औरत के लिए उनके मन में खासा सम्मान है.
दरियाल जी के घर पर हमारे साथ वैसा ही व्यवहार होता है जैसा सरकारों में वीआईपी लोगों के साथ होता है. उनके दोनों बेटे आसपास के स्कूलों में अध्यापक हैं. खाने के बाद वे हमारे साथ करीब दो घंटों तक बैठे रहते हैं और अपने जीवन से तमाम किस्से सुनाते रहते हैं. चाय की दूकान में खामोश बैठा हुआ यह शख्स कैसा गज़ब का किस्सागो निकला!
सोने के लिए हमें परिवार के सबसे बेहतरीन गलीचे उपलब्ध कराये गए हैं. उनमें कुछ पुराने पिस्सुओं का आवास है और वे हम अतिक्रमणकारियों को कुछ देर परेशान करते हैं लेकिन हमारी आँख जल्दी लग जाती है. रात भर बारिश होती रहती है.
हमारे आगमन की खबर दूर-दराज तक पहुँच गयी है. अगली सुबह मिलने वालों की एक बड़ी फ़ौज से हमारा सामना होता है. चूंकि यह गाँव शौका सभ्यता का प्रवेशद्वार है हम भी उनसे अपने शोध के मुतल्लिक तमाम सवाल पूछ लेते हैं लेकिन ऐसा लगता है की इन लोगों ने कमोबेश अपना परम्परागत धर्म छोड़कर आधुनिक हिन्दू धर्म अपना लिया है. बारह बजे तक हम आगे की यात्रा के लिए तैयार हैं. हमें बड़ी गर्मजोशी के साथ विदा किया जाता है.
दर गाँव से आगे का पुराना रास्ता पिछले साल की बारिशों में तबाह हो चुका है और हम उस पर नहीं जा सकते. स्येला गाँव तक जाने वाला दूसरा रास्ता बहुत संकरा और कीचड़ से भरपूर है. स्येला गाँव से ही वास्तविक दारमा की शुरुआत होती है. हमारी यात्रा धौलीगंगा के साथ-साथ चल रही है जिसका बहाव अब भी हिंसक है. रास्ते में बौंगलिंग गाँव पड़ता है. ऊपरी दारमा के अनेक गाँवों के रहनेवाले काफी अरसा पहले इस गाँव में आ बसे थे. हम खामोशी से आगे बढ़ रहे हैं. यह खामोशी कभी दूर तो कभी पास आ जाने वाली नदी के शोर से ही भंग होती है. मार्ग रपटीला है लेकिन हमारे चारों तरफ बेहद खूबसूरत हरा परिवेश है. हम छः बजे स्येला पहुँच जाते हैं. 10 किलोमीटर के आसान ट्रेक से हमें ज़रा भी थकान नहीं लग रही. यहां भी बरसातों ने गाँव जानेवाले पुल को बर्बाद कर दिया है और हम उसे देखने वहां नहीं जा सकते. नदी के उस तरफ गाँव दिखाई दे रहा है.
मकानों के छोटे-छोटे समूहों वाले रं या शौकाओं के गाँव बहुत खूबसूरती से बनाए गए होते हैं. बेहतरीन डिज़ाइन और शानदार काष्ठकला हरेक घर की पहचान होती है. गाँव का सुन्दर दृश्य आकर्षित कर रहा है. डूब रहे सूरज की किरणों का आखिरी सोना स्लेट की छतों पर चमक रहा है. हम नदी के इस तरफ से केवल दर्शक ही बने रह सकते हैं.
पुराने समय में स्येला गाँव से व्यांस घाटी जाने को स्येला ग्लेशियर से होकर एक रास्ता हुआ करता था लेकिन अब इस खतरनाक और वीरान पड़ गए मार्ग से जाने की हिम्मत कोई नहीं करता. दारमा घाटी से व्यांस घाटी को जाने वाला वर्तमान रास्ता आपको सिन-ला दर्रे की चढ़ाई तक ले जाता है जिसकी ऊंचाई तकरीबन 20,000 फीट है जहाँ से नीचे उतरकर आप छोटा कैलाश और जौलिंगकौंग पहुँचते हैं.
स्येला गाँव से लगी धौलीगंगा नदी का पाट खासा चौड़ा है और उसका बहाव अपेक्षाकृत बहुत शांत है. स्येला गाँव जिस चट्टान पर टिका हुआ है उसका आकार सचमुच विशाल है.
हमें अपने नाम-पते भारत-तिब्बत सीमा पुलिस (ITBP) की चौकी पर दर्ज कराने हैं. इस क्षेत्र में हमारी यात्रा पर यह सुरक्षा सेना निगाह रखेगी. इस बार फिर से हमारे पास किन्हीं गुरुसिंह सैलाल जी के नाम एक सिफारिशी चिठ्ठी है. गुरु सिंह सैलाल नदी के इस तरफ एक होटल चलाते हैं – जिसे सम्मानजनक शब्दों में रेस्तरां-कम-लॉज कहा जा सकता है. वे तुरंत अपना सबसे बेहतरीन सूइट हमारे लिए तैयार कर देते हैं. उनकी दुकान में समय और धुंएं से काली पड़ चुकी लकड़ी की बेंच पर बैठे हम चाय सुड़क रहे हैं जबकि वे आवश्यक हड़बड़ी के साथ उक्त सूइट के आठ-दस चक्कर लगा आते हैं. अंततः वे अगरबत्ती के पैकेट और टेलकम पाउडर के डिब्बे से साथ भीतर जाते हैं.
बाहर ठंड है लेकिन इस अंधेरे से छोटे कमरे के भीतर हमारे पास अपने स्लीपिंग बैग्स की गर्मी है. बुजुर्ग सैलाल जी हमारे साथ देर तक बैठे रहते हैं और अपने गाँव और उसकी पुरातन परम्पराओं की बाबत हमें अनेक कथाएँ सुनाते हैं.
अगली सुबह हम उनसे आग्रह करते हैं कि वे हमें अपना फोटो खींचने दें. वे हाँ कहते हैं लेकिन तैयारी करने के बाद. स्थानीय जन और आईटीबीपी के जवान मौके पर इकठ्ठा हो गए हैं. गुरुसिंह जी अपनी सबसे अच्छी पोशाक धारण करते हैं और अपना प्रागैतिहासिक चश्मा निकालते हैं. ना. अभी पूरा नहीं हुआ. वे भीतर जाकर अपनी छाता खोज लाते हैं. और फोटो खिंचाने की मुद्रा में अपनी दुकान के बाहर उत्साह के साथ खड़े हो जाते हैं. सुबह बहुत चमकीली है. उतने ही चमकीले वे भी हैं.
(जारी)
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One Comment
suraj p. singh
वाह!