दारमा घाटी के भीतर: फिलम गाँव और दादी का च्युंग-बाला
–अशोक पाण्डे
(पिछली कड़ी से आगे. पिछली कड़ी का लिंक – दारमा से व्यांस घाटी की एक बीहड़ हिमालयी यात्रा – 9)
तो हम इन जनाब डबला फिरमाल से मिलते हैं. वे पच्चीस साल के एक नौजवान हैं – बहुत दिमागदार और विनम्र. वे तुरंत हमारे लिए ढेर सारी कालीमिर्च डली चाय बनाने में जुट जाते हैं. जब तक वे अपनी रसोई से लौट कर आते हैं, उनके छोटे से कमरे में कई उम्रों के बच्चे, बूढ़े और स्त्री-पुरुष भीड़ लगा चुके हैं. वे सब टकटकी बांधे हमें देख हैं और डबला फिरमाल के प्रकट होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं.
हमारे मेज़बान ने बहुत कम आयु में किस्सागोई की कला को साध लिया है और वे इस बात पर खासा आत्मगौरव भी महसूस करते लगते हैं. वे किसी खलीफा उस्ताद की तरह बोलते हैं. उन्होंने ये सारी कहानियां अपने दादाजी से सीखी-सुनीं हैं. दादाजी ने, जो अब स्वर्गीय हो चुके हैं, किसी समय यह तय कर लिया था कि अतीत की कहानियां सुनाने की प्रतिभा समूचे गाँव में केवल डबला के पास है.
वे हमें बहुत सारी दिलचस्प कहानियां सुनाते हैं और उन कहानियों में जरूरी चीज़ें जोड़ते हैं जिन्हें हम पहले से जानते हैं. लेकिन इसके बावजूद उनकी शैली में वह जीनियस नहीं है जो मिसाल के लिए दांतू गाँव के दधिमल सिंह जी के पास है. हो सकता है कहानियां तब ज़्यादा दिलचस्प और असली लगती हैं जब कोई उम्रदराज़ आदमी उन्हें ठहर-ठहर कर सुनाता है.
गो गाँव के रास्ते जाते हुए मेरी निगाह अचानक नदी के उस तरफ ठहर जाती है. सारा इलाका अस्थिर कोहरे में ढंका हुआ है. कोहरे के इस परदे के भीतर से कभी-कभी छोटी सी पहाड़ी पर बना हमारा गेस्टहाउस बिजली की तरह जब-तब कौंध जाता है. उसे देखना अपने अस्थाई घर को देखना और एक अजीब तरह की हौस जगाने वाला है.
आज दिन भर बूंदाबांदी होती रही है और लोग हमें लगातार बताते रहे हैं कि आने वाले दिनों और ज्यादा बारिश होने को है.
हम फिर से दांतू में अपने पुराने दोस्त दधिमल सिंह जी की दुकान में हैं जहाँ हमारी किस्मत से आज मेरे बड़े औषधि-अनुसंधानकर्ता भाईसाहब का कोई नामोनिशान नहीं है. दधिमल सिंह जी बताते हैं कि त्यौहार का सीज़न होने की वजह से समूचा गाँव च्यक्ती के नशे में डूबा पड़ा है.
वे हमारे लिए चाय बनाते हैं. चाय बनाते हुए उनकी प्राचीन झुर्रियां आग की लपट में दिपदिपाने लगती हैं. एक बेहद बूढ़ी अम्मा भी दुकान में बैठी हुई हैं. वे अस्सी या नब्बे या हो सकता है सौ साल की हैं. बिना दांतों वाला मुंह, न झपकने वाली उनकी चमकीली आँखें और असंख्य झुर्रियां उनके चेहरे पर एक महान चरित्र की सर्जना कर रही हैं. वे आश्चर्यजनक रूप से रंगबिरंगा और चटकीला पारंपरिक रं परिधान पहने हैं और उनके चेहरे पर दया और करुणा के भाव स्थाई रूप से स्थापित हो चुके हैं.
उनके गाउन-सरीखे च्युंग-बाला के गरम मोटे कपड़े के बैकग्राउंड में आश्चर्यजनक रूप से चमकदार लाल, पीले, नीले और नारंगी रंगों का एक सम्मोहक पैचवर्क बना हुआ है. उन्होंने काफी सारे आभूषण पहने हुए हैं – उनकी नाक पर सजे सोने के बड़े से बीरा और गरदन में लिपटे ठोस चांदी के बने खोंग-ले की सुन्दरता से निगाह हटा पाना मुश्किल है.
जहाँ तक अपने व्यक्तिगत वस्त्रों, विशेषतः च्युंग-बाला और च्युकला (सर को ढंकने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला सफ़ेद वस्त्र) की बात आती है, एक रं स्त्री को परम्परागत रूप से उनके लिए धागा कातने और रंगने से लेकर उन्हें सीने तक का काम खुद अपने हाथों से करना होता है. कुशल कारीगरी, सूक्ष्म डीटेलिंग और व्यक्तिगत चरित्र इन वस्त्रों की असली पहचान होते हैं.
रं महिलाओं के आभूषण आश्चर्यजनक रूप से संपन्न और सुरुचिपूर्ण होते हैं. इनमें अनेक तरह के हार, नाक-कान की बालियाँ, कंगन और अंगूठियाँ शामिल होते हैं. ये आभूषण अमूमन चांदी और मूल्यवान पत्थरों से बनाए जाते हैं. यह जानना दिलचस्प है कि रं-ल्वू (रंग भाषा) में स्त्री के आभूषणों के लिए साली-पूली (सा=मिट्टी, ली=फल) एक सामूहिक नाम है.
सबीने मुझे इस तमाम समय बताती रही है कि रं स्त्रियों के रंगबिरंगे वस्त्र और कलात्मक आभूषण प्रकृति के प्रतिरूप हैं जो मुश्किल जलवायु और खतरनाक भूगोल को चुनौती देने और उनमें खुद को बचाए रखने की उनकी अदम्य इच्छाशक्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं.
(जारी)
[नोट: पिछली क़िस्त में एक पाठक ने ध्यान दिलाया था की धारचूला की घाटियों में रहने वालों को शौका नहीं कहा जाता और यह भी कि यह नाम मुनस्यारी की जोहार घाटी के बाशिंदों के लिए इस्तेमाल किया जाता है. मुझे ठीकठाक पता नहीं कि यह बात कितनी सत्य है क्योंकि अनेक इतिहासकारों ने धारचूला की घाटियों में रहने वालों को भी शौका के नाम से संबोधित किया है. चूंकि धारचूला की घाटियों में रहने वालों के लिए रं नाम आधिकारिक रूप से प्रचलित है, किसी भी तरह के संशय से बचने के लिए अब से मैं शौका के बदले रं शब्द का ही प्रयोग करूंगा और पिछली पोस्ट्स में भी उचित सुधार कर दूंगा – लेखक.]
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